Track Ballast: आज हम बात करेंगे एक ऐसे सवाल की जो आपने ज़रूर कभी न कभी सोचा होगा – “रेल की पटरियों के नीचे और आसपास इतने सारे छोटे–छोटे पत्थर क्यों डाले जाते हैं?” क्या ये सिर्फ सजावट के लिए होते हैं, या इनका कोई खास मकसद होता है? आइए जानते हैं पूरा विज्ञान!
इन पत्थरों को कहा जाता है Track Ballast, जिसे हिंदी में हम रेल गिट्टी या बैलेस्ट कहते हैं। ये छोटे लेकिन बेहद मजबूत पत्थर होते हैं, जो आमतौर पर ग्रेनाइट, क्वार्ट्ज या अन्य कठोर चट्टानों से बनाए जाते हैं। इनका आकार और बनावट इस तरह से रखी जाती है कि ये एक–दूसरे को कसकर पकड़ते हैं, लेकिन फिर भी इनके बीच में से पानी निकल सकता है। तो चलिए अब बात करते हैं कि इनका असली काम क्या होता है।
सबसे पहला काम – ट्रैक को स्थिर रखना। जब एक भारी ट्रेन पटरियों पर से गुजरती है, तो बहुत ज्यादा वजन और कंपन पैदा होता है। अगर पटरियों के नीचे बैलेस्ट न हो, तो वो ज़मीन में धंस सकती हैं या अपनी जगह से हिल सकती हैं। लेकिन इन पत्थरों की मदद से ट्रैक अपनी जगह मजबूती से बना रहता है।
दूसरा काम – कंपन को सोखना और उसे फैलाना। ट्रेन जब दौड़ती है, तो उससे उत्पन्न ऊर्जा इन पत्थरों के जरिए फैल जाती है और सीधे ज़मीन पर नहीं जाती। इससे पटरियों की उम्र बढ़ती है और कम रखरखाव की ज़रूरत होती है।
तीसरा काम – जल निकासी। बारिश या किसी अन्य कारण से अगर पानी ट्रैक पर आता है, तो ये पत्थर उसे नीचे की ओर बहने देते हैं। इससे पानी पटरियों पर जमा नहीं होता, और जंग या स्लीपर सड़ने जैसी समस्याओं से बचा जा सकता है।
चौथा काम – घास और खरपतवार को बढ़ने से रोकना। अगर गिट्टी न हो, तो पटरियों के बीच और आसपास पौधे उगने लगते, जिससे ट्रैक की मजबूती और सुरक्षा दोनों खतरे में पड़ सकते हैं।
अब सवाल उठता है – अगर ये बैलेस्ट न हो, तो क्या होगा?
तो जवाब है, बहुत नुकसान! पटरियाँ ज़मीन में धंस सकती हैं, ट्रेन की स्पीड पर असर पड़ेगा, और दुर्घटनाओं का खतरा भी कई गुना बढ़ जाएगा। इसलिए, बैलेस्ट ट्रैक का एक अनिवार्य हिस्सा है।
इनकी मोटाई कितनी होती है?
आमतौर पर बैलेस्ट की मोटाई 25 से 30 सेंटीमीटर तक होती है, लेकिन ट्रैफिक और ट्रेन के वजन के अनुसार इसे और भी मोटा किया जा सकता है। इनके ऊपर स्लीपर (लकड़ी या कंक्रीट के पट्टे) बिछाए जाते हैं, और फिर उन पर रेल पटरियाँ लगती हैं।
क्या हर रेलवे लाइन में बैलेस्ट होता है?
नहीं, आजकल कुछ हाई–स्पीड ट्रेनें या मेट्रो रेल सिस्टम Ballast-less Track का उपयोग कर रहे हैं। इसमें कंक्रीट की मजबूत सतह पर सीधे पटरियाँ फिक्स की जाती हैं। यह तरीका और भी स्थिर और लंबे समय तक चलने वाला होता है, लेकिन इसकी लागत अधिक होती है।
क्या आप जानते हैं कि ‘बैलेस्ट‘ शब्द जहाजों से आया है? पुराने समय में जहाजों को स्थिर रखने के लिए भी पत्थरों का उपयोग किया जाता था। उसी अवधारणा से रेलवे में भी इनका उपयोग शुरू हुआ।
रेलवे ट्रैक के नीचे बिछे ये पत्थर सिर्फ एक रास्ता नहीं बनाते, बल्कि हर सफर को मजबूत, सुरक्षित और तेज़ बनाते हैं।