बिहार अपने बौद्ध तीर्थ स्थलों के लिए आज विश्वभर में प्रसिद्धि पा रहा है. इसकी काफी ठोस वजह है जो हमें अपने पूर्वजों से विरासत के तौर पर मिली है. हाँ एक तरफ़ विश्वप्रसिद्ध वैशाली और बोधगया स्थित है, वहीं वैश्विक स्तर पर प्रासंगिकता वाला चम्पारण भी इसी बिहार में मौजूद है. यहाँ बौद्धकाल के कई स्मारक पाए गए हैं. सम्राट अशोक द्वारा बनाए गए स्तम्भ अभी भी इस जिले के अलगअलग हिस्से में सुरक्षित हैं.

2200 वर्ष पूर्व की इस भव्य विरासत को देखकर आप आहलादित हो जाएंगे. इस विरासत को देखकर यह प्रतीत होता है कि इस पावन धरती की सांस्कृतिक विरासत काफी महत्वपूर्ण है. इसे देखकर ऐसा प्रतीत होगा कि यह क्षेत्र ऐतिहासिक, धार्मिक व व्यवसायिक रूप में 22सौ वर्ष पहले भी विरासत का केन्द्रबिन्दु था. ये है पश्चिमी चंपारण स्थित शहर लाउरिया नन्दनगढ़ जो कि इतिहास के कई महत्वपूर्ण घटनाओं का साक्षी रहा है. वहीँ पूर्वी चंपारण स्थित केसरिया स्तूप जो आज भी अपने अन्दर कई रहस्यों को समेटे हुए है. चंपारण तो वैसे अतीत में घटी कई घटनाओं का साक्षी रहा है लेकिन इस शहर के मुख्य आकर्षण का केंद्र केसरिया स्तूप और अशोक स्तम्भ सहित कई टीले है जो मौर्या काल के गौरवशाली इतिहास को दर्शाता है. यहाँ केसरिया स्तूप के अलावा और भी स्तूप है लेकिन केसरिया स्तूप दुनिया का सबसे बड़ा बौद्ध स्तूप माना जाता है. और यहाँ के कई स्तूप व स्तंभ बौद्ध धर्म के अपने रहस्यों को छिपाकर ख़ामोश पड़ा हैं. यहाँ आपको पूर्वी चंपारण और पश्चिमी चंपारण में स्थित टीलों में कंफ्यूजन हो सकता है. आपका सिर चकराए इससे पहले आपको बता दू की केसरिया स्तूप पूर्वी चंपारण में स्थित है. वहीँ लौरिया नंदनगढ़ स्थित अशोक स्तंभ पश्चिमी चंपारण में है. लौरिया नंदन स्थित अशोक स्तंभ के क़रीब मौजूद टीला ये भी पश्चिमी चम्पारण में स्थित है. वहीँ लौरिया अरेराज भी पश्चिमी चंपारण में स्थित है. ये विडियो थोडा सा लम्बा लेकिन यहाँ आपको जानने के लिए बहुत कुछ मिलेगा इसलिए हमारे साथ अंत तक जरुर बने रहें

पूर्वी चम्पारण स्थित केसरिया स्तूप

अब बिना वक़्त जाया किए मैं आपको पूर्वी चंपारण स्थित केसरिया स्तूप के किस्सों और रहस्यों से रूबरू करवाउंगी जो आपको रोमांचित करेंगी. बौद्ध मान्यताओं के मुताबिक़ गौतम बुद्ध इसी स्थान पर अपने राजसी वस्त्र व गहने उतार कर फेंक दिए. यहीं पर अपने बालों का भी त्याग किया और एक तपस्वी के भेषभूषा और चरित्र को ग्रहण कर लिया.

महात्मा बुद्ध लंबे अंतराल के बाद अपनी मृत्यु के पूर्व वैशाली से कुशीनगर जाते समय चंपारण होते हुए गए थे. बिहार के पश्चिमी चम्पारण ज़िले के ज़िला मुख्यालय बेतिया से क़रीब 29 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गाँव लौरिया नंदनगढ़ या इसके आसपास के लोगों का मानना है कि उनकी राख या उनके अंतिम संस्कार से लिया गया चारकोल यहीं किसी स्तूप में रखा है. ये स्तूप व स्तंभ चौथी शताब्दी ई.पू. में मौर्य सम्राट अशोक के शासनकाल के 21वें वर्ष में बनाया गया था. इन स्तंभों में उस राजवंश के अभिलेख और स्मारक आज भी मौजूद हैं. उस ज़माने में मौर्य सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तंभ को ‘लौर’ कहा गया. और उस ‘लौर’ के 100 गज क़रीब पड़ोस में जो भी गाँव या क़स्बा हो, उसे ‘लौरिया’ के नाम से जाना जाता है.

बताया जाता है कि राजा अशोक ने पाटलिपुत्र जो अभी पटना के नाम से प्रसिद्द है. से अपनी तीर्थयात्रा शुरू की और वे चम्पारण ज़िले के केसरिया गाँव, लौरिया अरेराज व लौरिया नंदनगढ़ से गुज़रते हुए रामपुरवा गाँव गए. इन सब स्थानों में राजा अशोक ने ही स्तूप अथवा स्तंभ जिसे लौर भी कहते हैं बनवा दिया था.

लेकिन इस बात का प्रमाण तब मिला जब ब्रिटिश पुरातत्वविद् अलेक्जेंडर कनिंघम ने 1861 में पूर्वी चम्पारण स्थित इस केसरिया स्थल का दौरा किया. पहली बार इन्होंने ही इस टीलेनुमा स्तूप की खोज करने का दावा किया, जिसे स्थानीय रूप से रानीवासके रूप में जाना जाता था, लेकिन खुदाई में इसके बौद्ध धर्म से जुड़े होने के हर तरह के प्रमाण मिले.

हालाँकि कनिंघम ने खुद अपने रिपोर्ट में बताया है कि पर्वतारोही बी.एच. हॉजसन इस धरोहर का उनसे पहले से पता था. 1835 में जेम्स प्रिन्सेप के जर्नल ऑफ़ द एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल ने हॉजसन की एक रिपोर्ट को प्रकाशित किया था. लेकिन कोई ख़ास जानकारी नहीं प्राप्त की गई. बता दें कि सर अलेक्जेंडर कनिंघम ब्रिटिश सेना के ‘बंगाल इंजीनियर ग्रुप’ में इंजीनियर थे, जो बाद में भारतीय पुरातत्व, ऐतिहासिक भूगोल तथा इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान हुए. जिन्हें भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग का जनक माना जाता है.

कनिंघम की रिपोर्ट बताती है कि इस स्तूप की कुल ऊँचाई 62 फीट और नीचे का घेरा 1400 फीट है जो की सातवीं सदी का बताया गया है. कनिंघम कहते हैं कि ऊपर का स्तूप एक बहुत पुराने और बड़े स्तूप के भग्नावशेष पर बनाया गया है. उन्होंने अपने रिपोर्ट में बताया है की इस प्राचीन स्मारक को यहाँ के स्थानीय लोग राजा बेन का देवराके नाम से जानते थे. पास के दूसरे टीले को रनिवास का भग्नावशेष बताते थे. जहाँ राजा बेन की रानी पद्मावती स्नान करती थीं. तीन हज़ार फीट लंबा एक दूसरा तालाब ‘राजा बेन का तालाब’ कहलाता है. वहीँ रनिवास नामक टीले को इतिहासकार एक बौद्ध मठ का भग्नावशेष बताते हैं. कनिंघम को यहाँ खुदाई के दौरान इसके अंदर एक मंदिर मिला था, जिसमें बुद्ध की एक विशाल मूर्ति थी. यह मूर्ति 1878 में एक बंगाली कर्मचारी द्वारा हटा दी गई.

आपको बताते चलें की मैकेन्जी द्वारा 1814 . तथा अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा 1861 . में इस स्तूप का उत्खनन किया गया वहीँ मैकेन्जी तथा कनिंघम द्वारा अन्वेषित इस स्तूप का उत्खनन 1997-98 . में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पटना सर्किल द्वारा प्रारंभ किया गया, जिसे तत्पश्चात पुरातत्व उत्खनन शाखा-III द्वारा 2018 में फिर से आगे बढ़ाया गया.

छः स्तरीय यह संरचना एक वृत्ताकार बौद्ध स्तूप है जो ईंटों एवं मिट्टी के गारे से निर्मित है. इसके शीर्ष में लगभग 10 मीटर ऊँचा तथा लगभग 22 मीटर व्यास वाला बेलनाकार विशाल अंड भाग है। स्तूप की कुल ऊँचाई लगभग 31.5 मीटर तथा व्यास 123 मीटर है।.

पश्चिमी चम्पारण के लौरिया नंदन स्थित बौद्ध स्तूप

बात करें लौरिया नन्दनगढ़ स्थित स्तूप की तो यह पश्चिमी चंपारण के जिले मुख्यालय बेतिया से 14 मील की दूरी पर स्थित दो छोटा छोटा टीला है. जिसे स्तूप कहा गया. यहाँ स्थित अशोक का सतम्भ 32 फीट और 9.5 इंच लम्बा है. जिसके निर्माण हेतु बलुआ पत्थर का इस्तेमाल किया गया है और साथ ही स्तंभ के शीर्ष पर एक गोलाकार अबेकस है जिस पर सिंह की मूर्ति है. अलेक्जेंडर कनिंघम अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि स्तंभ अब लिंगराम के रूप में पूजा की वस्तु बन गया है. इस अशोक स्तंभ के क़रीब ही दो टीलेनुमा छोटेछोटे स्तूप नज़र आते हैं. यहाँ से क़रीब डेढ़दो किलोमीटर की दूरी पर एक टीलानुमा स्तूप है. कनिंघम ने अपनी रिपोर्ट में इसे नवंदगढ़ का क़िला बताया है. कमिंघम ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है —‘खुदाई में मिले चांदी के सिक्कों में से एक छोटा पंचचिह्नित सिक्का मिला। ये सिक्के निश्चित रूप से सिकंदर महान के समय के पहले के हैं, और मेरा मानना है कि उनमें से कई 1000 ईसा पूर्व से भी पुराने हैं बल्कि शायद उससे भी पुराने’। एक अन्य लेखक के मुताबिक़ लौरिया नंदनगढ़ की इस खुदाई में कई प्रकार की आदिम मूर्तियां मिलीं.

यहाँ आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया का लगा बोर्ड बताता है कि ये टीले मिट्टी या कच्ची ईंटों के बने स्तूप हैं जिन्हें पक्की ईंटों से मज़बूत किया गया है। इनमें दो स्तूपों में राख और आदमी की जली हुई हड्डियों के साथ सोने के पत्तर पर बनी देवी की मूर्ति पाई गई थी। ऐसी ही मूर्ति पिपरावा (बस्ती ज़िला) के बौद्ध स्तूप में भी मिली थी। कई लोगो का यह भी मानना है की जिस भी इन्सान का इस दुनिया से मोह माया ख़त्म हो जाता था वो सब कुछ त्यागकर इसके अन्दर प्रवेश कर जाता था. इसमें जाने के लिए ऊपर से रास्ता बनाया गया था लेकिन बाहर आने के लिए कोई रास्ता नहीं था. और उस वयक्ति की उसी टीले के अन्दर मृत्यु हो जाती थी.

लौरिया अरेराज

ये पश्चिम चम्पारण में गोविन्दगंज थाने से चार मील उत्तर है, जो केसरिया और बेतिया के बीच में पड़ता है। यहाँ पत्थर का बना एक अशोक स्तंभ खड़ा है,

रामपुरवा

पश्चिम चम्पारण ज़िले के बिल्कुल उत्तर भाग में गौनाहा से कुछ दूर पिपरिया गाँव के पास यह एक गाँव है। यहाँ अशोक के दो खंडित स्तंभ हैं, जो ज़मीन पर खड़े होने के बजाए पड़ी हुई अवस्था में हैं बता दें कि अंग्रेज़ों ने चम्पारण को सन 1866 में ही स्वतंत्र इकाई बनाया था, लेकिन 1971 में इसका विभाजन कर पूर्वी तथा पश्चिमी चंपारण बना दिया गया। बौद्ध धर्म से जुड़े इन तमाम धरोहर आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की देखरेख में हैं।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *