भारत मंदिरों का देश कहलाता है. जहाँ तमिलनाडू और उड़ीसा जैसे राज्यों को मंदिरों का शहर या मंदिरों की पुण्यभूमि कहा जाता है. वैसे ही बिहार में भी मंदिरों की कमी नहीं है. आपने कई ऐसे प्राचीन और ऐतिहासिक मंदिरों का नाम सुना होगा जो त्रेता और द्वापर युग से स्थापित है और आज कलयुग जैसे समय में भी अपनी भव्यता और महत्ता के लिए भक्तों और पर्यटकों के बीच प्रसिद्द है. आज हम आपको एक ऐसे ही भारत के सबसे प्राचीन मंदिर के दर्शन के लिए लेकर चलेंगे जो आपके बिहार में ही स्थित है. पहाड़ों वाली वादियों के बीच स्थित यह मंदिर यहाँ पहुँचने के बाद लोगो को एक अलग ही सूकून देता है. इस मदिर की भव्यता और महत्ता का किस्सा इतना पुराना है की सुनने के बाद लोगो के रोंगटे खड़े हो जाते हैं. जी हाँ नमस्कार आप देख रहे बिहारी न्यूज़ बिहारी विहार के आज के इस सेगमेंट में हम चलेंगे कैमूर की पवड़ा पहाड़ी पर. जहाँ स्थित है मां मुंडेश्वरी का प्राचीन मंदिर. जो भारत के सबसे प्राचीन व सुन्दर मंदिरों में से एक है. जिसकी वास्तुकला दूर दूर तक विख्यात है.
बिहार की राजधानी पटना से करीब 200 किलोमीटर दूर कैमूर जिले के के भगवानपुर अंचल में पवरा पहाड़ी पर 608 फीट की ऊँचाई पर स्थित यह मंदिर जितना ऐतिहासिक है उतना ही रोमांचक. यह प्राचीन मंदिर पुरातात्विक धरोहर ही नहीं, बल्कि तीर्थाटन व पर्यटन का जीवंत केन्द्र है. इस मंदिर को किसने और कब बनाया यह कहना बेहद ही कठिन है. लेकिन यहाँ से प्राप्त शिलालेखों के अनुसार उदय सेन नामक क्षत्रप के शासन काल में इसका निर्माण हुआ था. मंदिर का एक शिलालेख कोलकाता के भारतीय संग्रहालय में है. पुरातत्वविदों के अनुसार यह शिलालेख 349 ई. से 636 ई. के बीच का है. इस मंदिर में पूजा की परम्परा करीब 19 सौ सालों से चली आ रही है. और आज भी यह मंदिर पूरी तरह से जीवंत है. 1838 से 1904 ई. के बीच कई ब्रिटिश विद्वान् व पर्यटक यहाँ आए थे. प्रसिद्ध इतिहासकार फ्राँसिस बुकनन भी यहाँ आये थे. इस मंदिर का जिक्र कनिंघम ने भी अपने पुस्तक में किया है.
माना जाता है की इस मंदिर का पता तब चला जब कुछ गडरिये अपनी भेड़ों को चराने पहाड़ी के ऊपर गए और मंदिर के स्वरूप को देखा. उस समय इसकी इतनी प्रसिद्धि नहीं थी, जितनी अब है. प्रारम्भ में पहाड़ी के नीचे निवास करने वाले लोग ही इस मंदिर में दीया जलाते और पूजा–अर्चना करते थे. यहाँ से प्राप्त शिलालेख के आधार पर कुछ लोगों द्वारा यह अनुमान लगाया जाता है कि यह आरंभ में वैष्णव मंदिर रहा होगा, जो बाद में शैव मंदिर हो गया तथा उत्तर मध्ययुग में शाक्त विचारधारा के प्रभाव से शक्तिपीठ के रूप में परिणित हो गया. मंदिर की प्राचीनता का आभास यहाँ मिले महाराजा दुत्तगामनी की मुद्रा से भी होता है, जो बौद्ध साहित्य के अनुसार अनुराधापुर वंश का था और ईसा पूर्व 101 से 77 के बीच श्रीलंका का शासक रहा था.
इस मंदिर की कुछ रोचक तथ्य की बात करेंगे जो आपको काफी रोमांचित करेगी. इस मंदीर में पंचमुखी शिवलिंग स्थापित है जो की अत्यंत दुर्लभ है. जिसके बारे में कहा जाता है की इसका रंग सुबह, दोपहर और शाम को अलग–अलग दिखाई देता है.
आपने मंदिरों में पशुओं की बलि देते हुए देखा होगा जिसमें पशुयों की ह्त्या कर दी जाति है. लेकिन यहाँ पशुयों की बलि तो दी जाती है लेकिन हत्या नहीं की जाती. इस मंदिर का ये सबसे बड़ा रोचक तथ्य है. दरअसल यहाँ पशु बलि की सात्विक परंपरा है. यहाँ बलि में बकरा चढ़ाया जाता है, लेकिन उसका जीवन नहीं लिया जाता. यही वो दूसरा और आश्चर्यजनक तथ्य यह है यहाँ भक्तों की कामनाओं के पूरा होने के बाद बकरे की सात्विक बलि चढ़ाई जाती है, लेकिन माता रक्त की बलि नहीं लेतीं, बल्कि बलि चढ़ने के समय भक्तों में माता के प्रति आश्चर्यजनक आस्था पनपती है. जब बकरे को माता की मूर्ति के सामने लाया जाता है तो पुजारी ‘अक्षत‘ (चावल के दाने) को मूर्ति को स्पर्श कराकर बकरे पर फेंकते हैं. बकरा उसी क्षण अचेत, मृतप्राय सा हो जाता है. थोड़ी देर के बाद अक्षत फेंकने की प्रक्रिया फिर होती है तो बकरा उठ खड़ा होता है और इसके बाद उसे मुक्त कर दिया जाता है.
तीसरी रोचक तथ्य की बात करें तो कहते हैं कि चंड–मुंड के नाश के लिए जब देवी उद्यत हुई थीं, तो चंड के विनाश के बाद मुंड युद्ध करते हुए इसी पहाड़ी में छिप गया था और यहीं पर माता ने उसका वध किया था. अतएव यह मुंडेश्वरी माता के नाम से स्थानीय लोगों में जानी जाती हैं.
दुर्गा का वैष्णवी रूप ही माँ मुंडेश्वरी के रूप में यहाँ प्रतिस्थापित है. मुंडेश्वरी की प्रतिमा वाराही देवी की प्रतिमा है, क्योंकि इनका वाहन महिष है. मुंडेश्वरी मंदिर अष्टकोणीय है. इस मंदिर का मुख्य द्वार दक्षिण की ओर है. मंदिर में शारदीय और चैत्र माह के नवरात्र के अवसर पर श्रद्धालु दुर्गा सप्तशती का पाठ करने के लिए पहुँचते हैं. वर्ष में दो बार माघ और चैत्र में यहाँ यज्ञ भी होता है.
वर्षों बाद मुंडेश्वरी मंदिर में ‘तांडुलम भोग‘ अर्थात ‘चावल का भोग‘ और वितरण की परंपरा पुन: की गई है। ऐसा माना जाता है कि 108 ईस्वी में यहाँ यह परंपरा जारी थी.
‘माता वैष्णो देवी‘ की तर्ज पर इस मंदिर का विकास किये जाने की योजनायें बिहार राज्य सरकार ने बनाई हैं।
सबसे ख़ास बात तो यह है की मुंडेश्वरी मंदिर का संरक्षक एक मुस्लिम परिवार है.
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