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जातीय जनगणना करवा क्या नीतीश कुमार सत्ता की कुर्सी तक पहुंच पाएंगे?

Bihari News

बिहार में जातीय जनगणना को लेकर तेजी से कार्य चल रहा है. पूरे प्रदेश में शिक्षकों को इस कार्य में लगाया गया है. बीजेपी यह आरोप लगा रही है कि बिहार सरकार शिक्षकों का गलत इस्तेमाल कर रही है. इधर राज्य सरकार जातीय जनगणना को लेकर काफी खुश हैं. इतना ही नहीं बिहार में मई तक जनगणना समाप्त करने की भी बात कही जा रही है. ऐसे में बिहार में सियासत पूरी तरह से तेज हो गई है. बिहार ही नहीं जातीय जनगणना को लेकर देश के कई राज्यों में यह मांग की जा रही है कि जाती आधारित जनगणना होनी चाहिए. केंद्र सरकार इसका विरोध करती रही है. केंद्र सरकार से बिहार की एक पूरी टीम ने मुलाकात की है जिसमें यह निकलकर सामने आया कि केंद्र सरकार जातीय जनगणना करवाने के पक्ष में नहीं है अगर राज्यों की इच्छा है तो वह अपने पैसे से करवा सकती है. ऐसे में बिहार सरकार ने अपने पैसे से जातीय जनगणना करवाने का फैसला किया है.

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जातीय जनगणना करवाने के पीछे राज्य सरकार यह तर्क देती है कि गणना होने के बाद यह स्पष्ट हो पाएगा कि बिहार में जातियों की क्या स्थिति है. एससी, एसटी और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों की सही जानकारी सरकार के पास होगी जिसके जरिए सरकारी योजनाओं में उन्हें लाभ पहुंचाया जाएगा. प्रदेश के बजट में उनके लिए अलग से सुविधा मुहैया करवाई जाएगी. हालांकि इस जनगणना का विरोध कर रहे नेता यह कह रहे हैं कि यह समाज को जाति में बांटने की साजिश है. उनका कहना है कि अगर सर्वे करवाना है तो आर्थिक आधार पर सर्वे कराया जाना चाहिए था ताकि सरकारी योजनाओं का लाभ हर तबके के लोगों को मिल सके. आर्थिक रूप से कमजोर लोगों तक इसकी पहुंच बन सके. हालांकि बिहार सरकार ने जातीय जनगणना के लिए 500 करोड़ रुपये खर्च करने की बात कही है.

ऐसे में अब हमें जानने वाली बात होगी कि आखिर इससे पहले कहां कहां जातीय जनगणना हुई है और उसका उस सरकार पर क्या असर देखने को मिला है. क्योंकि बिहार में हो रही जातीय जनगणना को लोकसभा चुनाव 2024 और विधानसभा चुनाव 2025 के साथ जोड़कर देखा जा रहा है. सरकार को लग रहा है कि इसका उन्हें लाभ मिलेगा. जबकि विपक्ष को लग रहा है कि इससे उन्हें नुकसान हो सकता है. तो चलिए समझते हैं इससे पहले हुए जातीय जनगणना में किस सरकार को फायदा हुआ या नुकसान हुआ है. राजस्थान और कर्नाटक की सरकारों ने जातिय जनगणना करवाई थी. इस गणना के कारण एक राज्य में तो उन्हें अपनी सरकार ही खोनी पड़ गई थी. आपको बता दें कि साल 2011 में सबसे पहले जातिगत गणना राजस्थान में की गई थी लेकिन इस आंकड़े को सार्वजनिक नहीं किया गया. इस दौरान बनी रिपोर्ट को भी आज तक प्रस्तुत नहीं किया गया था. इसके बाद कर्नाटक में जातीय जनगणना करवाई गई जिसमें कांग्रेस की सिद्दारमैया सरकार ने शुरू करवाया इसके बाद इसको लेकर ढेर सारे सवाल उठे और इसे असंबैधानिक करार दिया गया. जिसके बाद इस पूरी रिपोर्ट का नाम बदल दिया गया जिसे सामाजिक एवं आर्थिक सर्वे नाम दिया गया. यह रिपोट साल 2017 में आई और सरकार ने बहुमत खो दिया था. सिद्दारमैया की सरकार के बाद यह रिपोर्ट आजतक प्रकाशित नहीं किया. ऐसे में अब कहा जा रहा है कि जब इस गणना से इतने जोखिम हैं तो फिर सरकार क्या इस जोखिम को उठा सकती है. कांग्रेस ने पहले ही सरकार खोया है क्या इस बार रिपोर्ट सार्वजनिक करने के लिए तैयार होगी.

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आपको बता दें कि साल 1931 में सबसे पहले जाती आधारित गणना हुई थी और 1941 में इसे जोड़ा गया था लेकिन क्या आपको ता है कि 1941 वाली यह रिपोर्ट प्रकाशित नहीं की गई थी. इसक बाद साल 1951 से लेकर 2011 तक जितनी भी गणना की गई है उसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का आंकड़ा तो दिया गया लेकिन अन्य जातियों के आंकड़ें जारी नहीं किये गए. आपको बता दें कि बिहार में सत्ता की चाबी ओबीसी के आसपास घूमती है. ऐसे में ओबीसी को लेकर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि जनगणना में उनकी संख्या अगर बढ़ गई तो क्या आरक्षण का प्रतिशत टूट जाएगा. क्या यह नीतीश कुमार के लिए एक मास्टरस्टोर साबित होने वाला है. क्या नीतीश कुमार इसी बहाने सत्ता की कुर्सी तक पहुंच सकते हैं. इस तरह के कई सवाल हैं जिसके जवाब मिलेंगे.

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