बिहारी बेजोड़ के आज के सेगमेंट में बात एके ऐसे बिहारी के बारे में जिन्होंने एक पूरा साम्राज्य खड़ा कर दिया था. उस समय के इतिहासकार ने इस शासक के बारे में लिखा था कि यह बहुत ही दूरदर्शी और विशिष्ट सूझबूझ का व्यक्ति था. इतिहास के पन्नों में आज उसका नाम बड़े गर्व से इसलिए भी लिया जाता है क्योंकि वह एक साधारण जगीदार का अपेक्षित बालक था. लेकिन जब उसे मौका मिला तो उस शासक ने अपनी वीरता, अदम्य साहस और परिश्रम के बल पर मुगल सेना को दिल्ली की सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया. इस शासक का नाम था शेरशाह सूरी.

शेरशाह सूरी के जन्म को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है. कुछ इतिहासकार यह मानते हैं कि शेरशाह सूरी का जन्म 1485-86 में हिसार हरियाणा में हुआ था तो वहीं कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इनका जन्म 1472 ईस्वी को सासाराम बिहार में हुआ था. शेरशाह सूरी का वास्तविक नाम फरीद खां था. उसके पिता का नाम था हसन खा. बता दें कि शेरशाह सूरी को शेर खां के नाम से भी जाना जाता है. इतिहासकारों की माने तो फरीद खां बचपन से ही बड़ा ही हौसला वाला व्यक्ति था. बताया जाता है कि शेरशाह सूरी जब छोटा था तो उन्होंने कहा था कि उनहें राजा उमर खान से मिलना है. लेकिन उसके पिता ने यह कहते हुए टाल दिया था कि तुम अभी छोटे हों बड़े होने पर मिल लेना. फिर फरिद ने अपनी मां से इच्छा जताई फिर पिता ने बात मान ली और अमर खान से से फरिद की मुलाकात हुई जिसमें अमर खान ने फरिद को बड़ा होने पर काम देने का वादा भी किया था. तब फरीद बहुत खुश हुआ और मां को सारी घटना के बार में बताया. इसके बाद फरिद खान साल 1952 में वे जमाल खान की साथ चल गए. लेकिन मां को यह पसंद नहीं आाया तो उन्होंने वहां छोड़ दिया और बिहार के शासक बहार खान नुहानी के दरबार में पहुंच गए. जब फरीद के पिता की मौत हो गई तो उन्होंने अपने जागीर पर कब्जा कर लिया लेकिन इसी जागीर को लेकर शेरखां और सुलेमान के बीच में शेरशाह सूरी के बीच में लड़ाई हुई थी.

हालांकि कुछ समय के बाद शेरशाह और बहार खान के बीच में संबंध खराब हो गया. तब शेरशाह बाबर के साथ हो गए. लेकिन जब इधर बहार खान की मौत हुई तो उसे नाबालिक राजकुमार की सुरक्षा की जिम्मेदारी मिली और वह फिर से बिहार में आ गया. तब उसे बिहार का राज्यपाल बनाया गया था. कहते हैं शेरशाह जब बिहार का राज्यपाल बनकर आया तो प्रशासन में बड़ा बदलाव किया. और बंगाल के एक बड़े से हिस्से पर इन्होंने कब्जा कर लिया. जिसका सीधा मतलब था कि हूमांयू को खुली चुनौती. फिर क्या था एक साल के अंदर हूमांयू और शेरशाह सूरी आमने सामने थे. और वह स्थान था कन्नाौज. जहां पर हुमायूं की बूरी हार हुई थी. इस हार के बाद बाबर द्वारा जीते गए किले भी छोड़ने पड़ गये. हूमांयू की हार के बाद उत्तर भारत पर सूरी साम्राज्य की शुरुआत हो गई. जब शेरशाह सूरी बिहार की सत्ता पर बैठा तो उस समय पश्चिम में कन्नौज और पुरब में असम उत्तर में हिमालय और दक्षिण में झारखंड तक शेरशाह का कब्जा था या कहें इसका साम्राज्य था.

शेरशाह सूरी के बारे में यह कहा जाता है कि वह बहुत कम दिनों तक दिल्ली की सत्ता पर रहा लेकिन जितने दिन के लिए रहा आखिरी व्यक्ति के लिए योजनाएं बनाई. आम आदिमी के मु्द्दों को समझा शेरशाह सूरी को राजस्व, प्रशासक, कृषि, परिवहन, संचार व्यवस्था के लिए आज भी याद किया जाता है. शेरशाह सूरी को रणनीतिकार के रूप में याद किया जाता है. साथ ही आधुनिक भारत के निर्माण में अपनी भूमिका के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाता है. यह भी कहा जाता है कि गुप्त काल के बाद पहली बार ऐसा कोई शासक मिला था जोकि इस तरह से राजनीतिक व्यवस्था के साथ ही प्रशासनिक व्यवस्था को देख रहा था. शेरशाह सूरी पहला व्यक्ति था जिसने अपनी मुद्रा जारी किया था. इसीलिए इतिहास बताते हैं कि आधुनिक रुपया व्यवस्था का अग्रदूत भी मानते हैं. कहते हैं मौर्य वंश का जब अंत हो गया तो शेरशाह सूरी ने एक बार फिर से पाटलिपुत्र को राजधानी बनाया था. शेरशाह सूरी को सड़को के निर्माण और यात्रियों के साथ ही व्यापारियों की सुरक्षा और व्यवस्था के लिए हमेशा याद किया जाएगा. वर्तमान में जिसे हम ग्रांड ट्रंक रोड के नाम से जानते हैं उसे पहले सड़क-ए-आजम के नाम से जाना जाता था. यह सड़क बांग्लादेश के चटगांव से शुरू होकर पाकिस्तान के लाहौर तक जाती थी. यह अफगानिस्तान में काबुल तक जाती थी. इस सड़क को मौर्य साम्राज्य, शेर शाह सूरी, मुगल साम्राज्य और ब्रिटिश साम्राज्य ने इसका निर्माण किया था.

दिल्ली में उसने शहर पनाह बनावाया था जिसे लाल दरवाजा के नाम से जानते हैं. दिल्ली का पुराना किला भी उसी के द्वारा बनवाया जाता है. शेरशाह जब दिल्ली के सुल्तान बने तो उन्होंने हिंदुओं को प्रमुख पद दिया था. जिसमें उन्होंने सेनापति और सरदार बनाया था. अफगानों के दबाब में आने के कारण उन्होंने हिंदुओं से जजिया कर को समाप्त नहीं किया था. रीवा के राजा वीरभान सिंह बघेला को शरण देने के कारण कालिंजर का शासक कीरत सिंह के किले को शेरशाह ने घेर लिया था. लगभग 6 माह तक घेरे रहा. आखिर में किले पर गोले बारूद दागने का आदेश जारी हो गया और उसके बाद एक गोला आकर शेरशाह के पास ही फट गया कहा जाता है कि 22 मई 1545 को शेरशाह की मृत्यु हो गई. इतिहासकार ये बताते हैं कि शेरशाह ने इस किले पर जीत हासिल कर ली थी लेकिन गोला फटने के कारण एक महान राजनीतज्ञ एक प्रशासक इस दुनिया से चला गया. कहा ता यह भी जाता है कि शेरशाह मात्र पांच साल तक देश की सत्ता में काबिज रहा लेकिन उसके द्वारा किए गए आज को आज की सरकारें भी अपने प्रशासन को चलाने के लिए मदद लेती है. शेरशाह सूरी की मौत के बाद उसका बेटा जलाल खान ने सत्ता संभाली और अपने पिता शेरशाह सूरी की याद में सासाराम में एक मकबरे का निर्माण किया जो कि एक कृत्रिम झील से घिरा हुआ है.

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